Thursday, December 30, 2010

किसी ने कहा है कि मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है।



 ये बात तब मेरे समझ मे आई थी जब मेरे भाई ने मुझे गिरने से बचाया था।
ये किस्सा तब का है जब मैं बहुत छोटा था 2003 के अगस्त मे पड़ों पर जामुन का मौसम छाया रहता है और एसे में जब मेरे भाई ने मुझसे जामुन तोडने के लिये जब कहा तो मैं झट से मान गया और साथ चल दिया।
हमारे पटियाली मे स्टेशन के पास बहुत से जामुन के पेड़ हैं तो हम स्टेशन जा पहुँचे और पेड़ों के पास पहुचने के बाद जब हमने काले-काले जामुनों को देखा तो हमारे मुह में पानी आ गया।

हम दोनों ने आव देखा ना ताव और जैसे-तैसे पेड़ पर चड़ने का प्रयास शुरू कर दिया । उस वक्त हम झटपट पेड़ पर चड़ जाया करते थे, चड़ते ही हमने खिले-खिले काले जामुन खाना शुरू कर दिया। चारों तरफ काले- घने बादलों की तरह आसमान छाया हुआ था और हम उस मौसम का मज़ा लेने को तैय्यार थे
हर नज़र में, हर तरफ एक भीड़ थी और हम उस भीड़ को अपनी मुट्ठी मे भरने को बेताब। लिप-लिपाते होटों ने जामुनों को चटकारा मारकर खाना शुरू कर दिया...

हर बड़ते हुए हाथ के साथ हम पेड़ की हर डाली पर चड़ते जा रहे थे मैंने जब अपने भाई को देखा तो वो एक जगह मोटी सी डाली पर बैठ कर जामुन खा रहा था और कुछ अपनी जैबों मे भी भरता जा रहा था।
एक डाली पर बहुत काले-काले जामुन गुच्छों मे सिमटे हुए थे और उन्हें खाने की लालसा मे आगे बड़ा तो पीछे से मेरे भाई मे मुझे आवाज़ दी- राजनीत- "उधर मत जा वो डाली पतली है"
मैंने ये सोचा की पेड़ पर चड़ने का अगर मज़ा लेना है तो ये जामुन बिना आए उतरना बैकार है और अकसर मैंने देखा है कि हर खूबसुरत चीज़ कभी भी आसानी से नही मिलती उसके लिए हमेशा इंसान को मेहनत करनी पड़ती है।
उस दिन भी उस पतली सी डाली पर कुछ काले जामुन लटके हुए थे और उन्हे खाने के मन से मैं अपने भाई की बात को अनसुना करके उस डाली की तरफ बड़ गया।

मैंने जामुन एक या दो ही तोड़े थे इतने मे डाली ही टूट गई और हाथ से पकड़ी डाली के सहारे में लटक गया उस पल ऐसा लगा जैसे पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई हो। मुझे अपने मन जो डर था वो डर मैंने अपने भाई के चहरे पर देखा लेकिन उस डर मे बहुत तेज़ी थी मुझे बचाने की।
उसने मेरा हाथ बहुत मुश्किल से पकड़ा और उस एक सहारे से मुझे बचने का एहसास मिल पाया और तब ही मैंने अपने हाथ-पैर हिलाने शुरू किये ऊपर चड़ने के लिए।
हम दोनों घबराए हुए थे मैं चुप था लेकिन मेरा भाई मुझे डाट रहा था।
"तुझे मना किया था ना कि उधर मत जाइयो, आज के बाद तुझे लेकर नही आऊंगा, अगर तुझे कुछ हो जाता तो मैं क्या जवाब देता।"

इतना कहकर हम थोडी देर शांत रहे और उस शांती के बाद हमने फिर जामुन खाना शुरू किया जो लेकिन इस बार हम दोनों साथ थे वो तोड़ रहा था और मैं भर रहा था।


निचे आते-आते मेरे भाई ने मुझे एक बात समझाई कि - काले-काले खाओगे तो खटिया पर धर के जाओगे।
तब मैंने हंसते हुए कहा- भइया आइंदा से एसी गलती कभी नही होगी, आपकी बात मानुंगा।
इससे पहले कुछ ओर होता हम दोनों ने थोड़े ही जामुन खाए और चल दिए।
तभी तो कहते हैं कि हमेशा अपने से बड़े की बात माननी चाहिए, पता नही कब बात ना मानने की सजा भुकतनी पड़े। हम सभी को अपने से बड़ो का अदब और उनकी बातों को हमेशा मानना चाहिए।


राजनीत 

Saturday, December 4, 2010

अब दीवारें सुनाएंगी कहानियां .

 

सुनने-सुनाने का एक अलग दोर शुरू हो चुका है , गली, मोहोल्लों  की दीवारों पर अपने आस-पास की कहानियों को दिलचस्पी से पढते हुए लोग. 
अब लगता है कि किस्से और कहानियां हम से होकर सबके बीच अपनी जगह बनाने की कोशिश में रहेंगी.


Wednesday, November 24, 2010

हमारी गली


गली वो होती है जो कई घरों के बिच रास्ता बनाती है।
गली लम्बी हो या चौड़ी इससे फर्क नही पड़ता लेकिन गली अगर चौड़ी हो तो वो सड़क का रूप ले लेती है या लोग उसे गली कहते ही नही है। सड़क पर जो चहल-पहल होती है वो गलियों मे नही होती और जो रोनक गलियों मे की जा साकती है या होती है वो सड़क पर नही होती अकसर हम देखते हैं कि शादियों मे गलियों को ही सजाया जाता है क्योंकि सड़क के मुकाबले गली की जग-मगाहट देखने लायाक होती है।

गली का माहौल आस-पास से बनता है- सब घरों के बच्चे खेलते हैं, बाहर चबूतरों पर लड़के, लड़कियाँ, औरते बैठी रहती हैं अपने आज-कल की बातें करती हैं।
सड़क का माहौल दूरियों को समेट कर बनता है- अलग-अलग जगह के जाने-अनजाने लोगों से बनता है।

हमारी गली बहुत छोटी है कुल 6 घर हैं- 2 उलटे हाथ पर, 3 सीधे हाथ पर और एक बिलकुल सामने जिसके होने से गली बन्द हो गई है। बीच के बचे रास्ते को हम अपनी गली कहते है क्योंकि वहीं हम खेलते हैं, बाहर खड़े होते हैं और कहीं जाने के लिए भी वहीं इकट्ठा होते हैं।

हमारे घर के और सामने के घर के लोग अकसर अपनी-अपनी चौखट पर आकर बैठ जाते हैं और बातें करते हैं।
सड़क पर रातों को भी लोग चलते हुए दिख जाते हैं क्योंकि सड़क मंज़िल तक पहुचने का एक साधन है।
हमारी गली रात मे बिलकुल शांत हो जाती है कुत्ते भौंकते हैं लेकिन एसा लगता है जैसे उनके भौंकने से ही संन्नाटा और बड़ता जाता है। 


ज़मीर  

Tuesday, November 23, 2010

हमारा घर


हमारा घर पटियाली चौराहे के पास है, हमारे घर मे हम दो बहने, एक भाई है। एक बड़ी बहन है जिसकी शादी हो चुकी है और भईया की भी शादी हो चुकी है। हमारे घर मे हमारी भाभी भी साथ रहती है, मम्मी की तबियत आज-कल ठीक नही रहती इसलिए हम दोनों बहनें ही घर का सारा काम करती हैं और साथ-साथ पढ़ाई भी करते हैं।
जब हम स्कूल रहते हैं तो भाभी ही घर का काम देखती है, इस तरह मिल-बाट कर हम अपने घर को बनाए रखते हैं।
मम्मी हर काम मे हाथ बटाने को तैयार रहती है लेकिन हम उन्हें आराम करने को कहते रहते है। घर का सारा जिम्मा हमारे भईया पर है- हमारी पढ़ाई और घरेलू खर्च, अकसर भईया परेशान से दिखते है लेकिन वो काम करना नही छोड़ते, उनको हमेशा हमारी चिंता रहती है क्योंकि अब हम दोनों बहनें बड़ी हो चुकी हैं और हमारी शादी भी भईया को ही करनी है। 
हमारे पापा हमारे बचपन मे ही गुज़र गए थे, उस समय अकल नही थी तो इतना अफसोस नही हुआ लेकिन आज अफसोस होता है- काश पापा होते तो भईया पर इतना बोझ नही होता।
मैं आज ये सोचती हूँ कि भईया उस वक़्त ज़्यादा बड़े नही थे 15-16 साल के थे और पढ़ाई भी करते थे, तब हम कैसे गुज़ारा करते होंगे ?
मम्मी अकसर कहती है कि "मैंने अपने बच्चों को बड़ी मेहनत से पाला है" उनकी इस लाइन से मुझे मम्मी की उलझन और दिक्कत का अन्दाज़ा होता है कि वो पापा के बिना घर-परिवार को कैसे बनाए रखती होंगी ?
इसलिए मैं अपनी माँ से बहुत प्यार करती हूँ। भईया ने भी जब से होश सम्भाला है हमे खुश ही रखा है।

आज हम और हमारा घर सिर्फ हमारी मम्मी की बदोलत खुश और अच्छी व्यवस्था में है और मैं भगवान से यही प्रार्थना करती हूँ कि भगवान मुझे भी इतनी शक्ति दे कि मैं भी अपने जीवन मे कभी कमज़ोर न पड़ू।


रीता  

Sunday, October 3, 2010

lab work






"लैब वर्क"
कंप्यूटर और ड्राविंग दिवारों की शोभा बढ़ाते हुए , लैब की रोज़मर्रा का एक हिस्सा बन चुका है कला जिसमे सबने अपने हाथ आजमाए  और कुछ-कुछ बनाते हुए दिवारों को सजाया .

Saturday, October 2, 2010

एक गावँ की बात है।

एक गावँ था और उस गावँ का एक नियम था कि जो भी इस गावँ पर राज करेगा उसे एक साल के बाद राज और गावँ दोनों छोड़ने पड़ेंगे।
गावँ वाले उस राजा को जंगलों मे छोड़ दिया करते थे फिर एक नये साल एक नया राजा बनता था और उसके साथ भी वही नियम दोहराया जाता, जिससे कि गावं में कोई भी एसा शख्स नही बचा था जो उस गावं का राजा बनना चाहता हो।

अब गावं के लोग अलग-अलग गावँ में राजा की तलाश करने लगे कि कोई हमारे गावं का राजा बन जाए लेकिन कोई भी उस गावं का राजा बनने को राज़ी नही था। ऐसे में उन्हें एक साधू बाबा मिले गांव वालों ने अपनी बात को साधु बाबा के आगे रखा और उनको राजा बनने का न्यौता दिया, साधु बाबा उस गाव का राजा बनने को तैय्यार हो गए। सब लोग बहुत खुश हो गए और साधु बाबा राजा बन गए।

धीरे- धीरे साधु बाबा का राज करने का समय खत्म होता जा रहा था तब साधू बाबा ने अपने मंत्री को ये हुक़्म दिया कि जल्द से जल्द जगंल के सारे पेड़ कटवा दो और वहा एक महल बनाने का काम शुरू करवा दो। जगल कुछ ही महिनों में साफ हो चुका था जंगल के सभी जानवरों को भगा दिया गया।
एक चमकता हुआ महल बन कर तैय्यार हो गया।
जब एक साल हो गया और राजा के आगे राज छोड़ने का प्रस्ताव रखा गया तो साधु बाबा हँसने लगे और राज छोड़ने को तैय्यार हो गऐ। जब गावं के लोग उनको लेकर जंगल पहुचे तो उन्होनें वहां एक आलीशान महल देखा जो साधु बाबा का था, साधु बाबा की चतुराई देखकर लोग खुश हो गए और साधु बाबा को हमेशा के लिए अपना राजा बना लिया।


सोनू भगैल.

Tuesday, August 24, 2010

खौफ

मैंने देखा है खौफ से डरते हुए लोगों को
दिमाग समझ नहीं पता है, उन अजीब से लम्हों को
खौफ से इंसान का चेहरा पसीने से भर जाता है
इंसान ठीक होता है लेकिन खौफ से डर जाता है.

खौफ हमें मौत के पास छोड़ आता है
मौत के मुंह से शायद ही किसी को बचना आता है
अकेले रहने से खौफ बढता जाता है
साथ रहने से खौफ घट जाता है

अब तो खौफनाक जगह बढती जा रही हैं
तभी इंसान की जिंदगी घटती जा रही है
एक बार खौफ से हम भी तो जकड़ गए
जब मम्मी ने  उठाया तो रात में अकड़ गए

मौत के खौफ से इंसान जीना छोड़ दे ?
मिर्च के खौफ से इंसान खाना छोड़ दे ??



Rajneet

Friday, August 20, 2010

जुम-जुम ज़ीना...

मैंने एक सपना देखा - जिस सपने में  मुझे एक ऐसा इंसान दिखाई दिया जो हमेशा लोगों को  देखकर जीता था.

मैं एक पार्क में  बैठकर अपने स्कूल का काम कर रही थी। तभी अचानक से एक आदमी उस पार्क में आकर बैठ गया, मैंने उस आदमी की तरफ देखा तो वो  धीरे धीरे उठकर मेरे पास आने लगा, फिर मैं उस जगह से उठकर दूसरी  जगह जाकर बैठ गई.  फिर वो  वहां  भी आने लगा और मैं ये देखकर घबरा गई। मैं ये सोचने लगी कि ये आदमी मेरे पास क्यों  आ रहा है ?

मैं वहां  से भी उठकर खड़ी हो गई और जब वो मेरे बहुत पास आ गया तो वो मुझे देखकर धीरे-धीरे हँसने लगा और अचानक से तेज़-तेज़ हँसने लगा और तभी में उसे देखकर रोने लगी। जब मैंने उससे पूछा कि तुम मुझे देखकर क्यू हँस रहे हो, तो इतना सुनते ही वो शान्त हो गया.

इस बार मैं और भी ज्यादा डरने लगी। मैं जितना उससे डर रही थी उतना ही वो मुझे घूरता जा रहा था। तब मैंने उससे पूछा कि तुम मुझे घूर क्यूँ  रहे हो ? तो वो तब भी चुप रहा, उसकी खामोशी से मेरे दिमाग में  तरह-तरह की  बातें  आने लगीं  कि कही वो मुझे मारेगा तो नहीं ?

वो और भी ज्यादा पास आने लगा, मैंने अपनी आँखें बन्द कर लीं  और मेरी चीख़ निकल गई, चीख निकलने के पीछे मेरा डर मुझे सता रहा था क्योंकि जब मैंने उसके पैर देखे तो वो ज़मीन पर नही था बल्कि वो ज़मीन से कुछ ऊपर था.

मैंने वहाँ  से भागना चाहा लेकिन उसने मुझे भागने नहीं  दिया, मैं रूक कर उसे देखने लगी उसने मुझसे ऊपर देखने को कहा, मैंने पहले अपने सवाल को जानना चाहा कि तुम मेरे पीछे क्यूँ पड़े हो? उसने कहा कि मुझे भूख लगी है।

मैंने उससे कहा कि ऐसा  मेरे पास क्या है जो तुम खाओगे?
उसने कहा कि "न ही मैं खाना खाता हू और न ही कुछ पीता हूं, मैं तो बस लोगों को देखकर जीता हूं"
जाओ अब तुम आज़ाद हो मेरा पेट भर गया और कहा कि इसलिए ही लोग मुझे ज़ुम-ज़ुम ज़ीना कहते हैं।
इतना कहकर वो वहाँ  से उड़ गया और तब से मैं उस पार्क में नही गई और न ही मुझे वो आदमी नज़र आया।



Nida

Friday, August 13, 2010

सपना और कल्पना में क्या फर्क है ?

लैब में आज कल कल्पना को लेकर सोचने का दौर चल रहा है।
लुबना, निदा ज़मीर, चरन सिंह, कीर्ति, राज और रीता  ये सब कल्पना पर सोचने के साथ-साथ कल्पना को सोचते वक्त जो सवाल उभरते हैं  उन पर भी ध्यान दे रहे हैं।
सबने अपने मन से कल्पना को सोचते हुये एक नई रचना को लिखा और सुनने-सुनाने में सुनाने के साथ अपने सवालों को सबके बीच रखा :
-कल्पना क्या है?
-कल्पना में हम क्या देख सकते हैं  और क्या नहीं  पाबन्दी को सोचते हुये?
-कल्पना में मैं कहा हूं ये कैसे दिखाया जाए?
-जीवन के दायरों  से बाहर निकल कर कल्पना क्या की जाए?

सबने कुछ-कुछ बोलना शुरू किया और सबके बोलने में  एक बात साफ थी कि कोई भी कल्पना को समझ नहीं  पा रहा था कि कल्पना क्या है ? और कल्पना को कैसे सोचा जाए ?
क्योंकि ये एक नया अनुभव उनके बीच आया है जिसे लिखना और सोच पाना मुश्किल लग रहा था लेकिन सबको ये भी मालूम था कि ये प्रेक्टिस   मुश्किल जरूर है लेकिन ना-मुमकिन नहीं.  सबकी कोशिशों में  ये बात साफ हो गई कि करने की अगर लगन हो तो कुछ भी किया जा सकता है।

निदा का कहना था कि अगर मैं अपना सपना लिखूं  तो क्या मैं उसे अपनी कल्पना से नहीं  जोड़ सकती ?

वो अकसर एक सपना देखती है - जिसमें  वो एक शख्स से रोज़ मिलती है, वो रोज़ उसके सपने मैं आता है और उसके साथ नई जगहों और मुलाकातों के चित्रों से उसे मखातिब कराता है , वो उसे नहीं  जानती ना ही पहचानती है बातचीत में भी वो अंजान ही रहता है , लेकिन वो निदा को बखूबी  जानता है और पहचानता भी है.  निदा ने कभी उसका चेहरा  नही देखा लेकिन वो उसके साथ बिताए हर पल को खुश होकर जीती है जैसे बारिश में नहाना, घूमते रहना, कहीं  साथ बैठकर खाना खाना, साथ-साथ बाते करते हुए दूर तक चलना और भी कई चित्रों में वो अपने सपनों को सजाती है उसके साथ.  और जब ये बातें वो अपने घर पर बताती है तो घर वाले डर जाते है और तरह-तरह के तावीजों  से निदा को उस शख्स से मिलने से रोकते हैं।

निदा के इस सपने को और सवाल को सोचते हुए लैब में  बातचीत हुई कि हम जब सपना देखते हैं  तो ऐसा  लगता है जैसे रात की तरफ से ये तोहफा हमें मिलता है जिसके रचनाकार हम नहीं  होते लेकिन उस रचना में हम शरीक होते हैं। उसकी बुनाई हम नहीं  करते लेकिन उसकी बुनाई हमारी ही ज़िन्दगी से लम्हों और जरूरतों को जोड़कर की जाती है। इसे मैं अपना कह सकता हूं, लेकिन अपना होते हुए भी ये खुद से दूर लगते हैं. कल्पना का अपनी सोच से और अपनी रचना से जुड़ाव होता है जिसे हम जीना चाहते या जोड़ना चाहते हैं , लगता है जैसे कल्पना चाहत का ही एक नाम हो ?

लेकिन सवाल आता है कि क्या सपना कल्पना से नहीं  जोड़ा जा सकता ?
लुबना- सपने में भी वही होता है जो कल्पना में होता है एक अदभुत दुनिया जो सच्चाई से परे है।
ज़मीर- सपने में भी मैं हवा में उड़ रहा था और कल्पना में भी मैं हवा में  उड़ रहा हूं। दोनों ही मेरी सोच से मुझे मिलते हैं।
कीर्ति  - मुझे एक ही फर्क लगता है जो इन्हें  एक दूसरे से अलग बना देता है वो है खुद से बनना और बनाना। कल्पना को हम खुद से बनाते हैं  लेकिन सपना हमें  तोहफे की तरह मिलता है जिसके बनने में मर्ज़ी शब्द नही होता।
राज - मैं सपना नहीं  देखता या शायद मुझे याद नहीं  रहते क्योंकि उनसे मेरा कोई लगाव नहीं  है लेकिन मेरी कल्पना से मेरा लगाव है क्योंकि कल्पना मुझे आज़ादी देती है मन-मर्ज़ी सोचने की।

इस तरह कई तरह के सवालों  से होकर  हम सपने और कल्पना को लिखने लगे, कई नई दुनिया के चित्र हमारे सामने आने लगे। जिनको एक सूची में ढालकर हमने एक प्रक्रिया को ज़ोर दिया कि-- सपना और कल्पना में क्या फर्क है ?


saifu

Monday, August 9, 2010

1st posting

ये ब्लॉग किसी जगह के उभार को आपके साथ बांटने  के लिए बनाया गया है, हम चाहते हैं  कि उन लोगों को जो लिखने की शुरुआत कर चुके हैं, जो अपनी उत्तेजनाओं  के साथ सबके बीच खड़े होने के लिए तैयार हैं और अपनी नयी-नयी रचनाओं  को आप सबके साथ बटना चाहते हैं, उन्हें सबसे रूबरु होने का मौका  मिले.

 हम चाहते हैं कि उन रचनाओं  को आप सभी देखें और समझें  कि कैसे कोई जगह अपनी बनावट के साथ खेलती है और उभार में आती है ?

ये एक प्रयास है अनुभूति सेवा समिति का जो पटियाली जैसे ग्रामीण  इलाके में इस तरह के काम को प्रोत्साहित कर रही है और कोशिश में है यहाँ की प्रतिभा को खोजने की, हम सबके सामने लाने की .


सैफू 
अनुभूति टीम