लैब में आज कल कल्पना को लेकर सोचने का दौर चल रहा है।
लुबना, निदा ज़मीर, चरन सिंह, कीर्ति, राज और रीता ये सब कल्पना पर सोचने के साथ-साथ कल्पना को सोचते वक्त जो सवाल उभरते हैं उन पर भी ध्यान दे रहे हैं।
सबने अपने मन से कल्पना को सोचते हुये एक नई रचना को लिखा और सुनने-सुनाने में सुनाने के साथ अपने सवालों को सबके बीच रखा :
-कल्पना क्या है?
-कल्पना में हम क्या देख सकते हैं और क्या नहीं पाबन्दी को सोचते हुये?
-कल्पना में मैं कहा हूं ये कैसे दिखाया जाए?
-जीवन के दायरों से बाहर निकल कर कल्पना क्या की जाए?
सबने कुछ-कुछ बोलना शुरू किया और सबके बोलने में एक बात साफ थी कि कोई भी कल्पना को समझ नहीं पा रहा था कि कल्पना क्या है ? और कल्पना को कैसे सोचा जाए ?
क्योंकि ये एक नया अनुभव उनके बीच आया है जिसे लिखना और सोच पाना मुश्किल लग रहा था लेकिन सबको ये भी मालूम था कि ये प्रेक्टिस मुश्किल जरूर है लेकिन ना-मुमकिन नहीं. सबकी कोशिशों में ये बात साफ हो गई कि करने की अगर लगन हो तो कुछ भी किया जा सकता है।
निदा का कहना था कि अगर मैं अपना सपना लिखूं तो क्या मैं उसे अपनी कल्पना से नहीं जोड़ सकती ?
वो अकसर एक सपना देखती है - जिसमें वो एक शख्स से रोज़ मिलती है, वो रोज़ उसके सपने मैं आता है और उसके साथ नई जगहों और मुलाकातों के चित्रों से उसे मखातिब कराता है , वो उसे नहीं जानती ना ही पहचानती है बातचीत में भी वो अंजान ही रहता है , लेकिन वो निदा को बखूबी जानता है और पहचानता भी है. निदा ने कभी उसका चेहरा नही देखा लेकिन वो उसके साथ बिताए हर पल को खुश होकर जीती है जैसे बारिश में नहाना, घूमते रहना, कहीं साथ बैठकर खाना खाना, साथ-साथ बाते करते हुए दूर तक चलना और भी कई चित्रों में वो अपने सपनों को सजाती है उसके साथ. और जब ये बातें वो अपने घर पर बताती है तो घर वाले डर जाते है और तरह-तरह के तावीजों से निदा को उस शख्स से मिलने से रोकते हैं।
निदा के इस सपने को और सवाल को सोचते हुए लैब में बातचीत हुई कि हम जब सपना देखते हैं तो ऐसा लगता है जैसे रात की तरफ से ये तोहफा हमें मिलता है जिसके रचनाकार हम नहीं होते लेकिन उस रचना में हम शरीक होते हैं। उसकी बुनाई हम नहीं करते लेकिन उसकी बुनाई हमारी ही ज़िन्दगी से लम्हों और जरूरतों को जोड़कर की जाती है। इसे मैं अपना कह सकता हूं, लेकिन अपना होते हुए भी ये खुद से दूर लगते हैं. कल्पना का अपनी सोच से और अपनी रचना से जुड़ाव होता है जिसे हम जीना चाहते या जोड़ना चाहते हैं , लगता है जैसे कल्पना चाहत का ही एक नाम हो ?
लेकिन सवाल आता है कि क्या सपना कल्पना से नहीं जोड़ा जा सकता ?
लुबना- सपने में भी वही होता है जो कल्पना में होता है एक अदभुत दुनिया जो सच्चाई से परे है।
ज़मीर- सपने में भी मैं हवा में उड़ रहा था और कल्पना में भी मैं हवा में उड़ रहा हूं। दोनों ही मेरी सोच से मुझे मिलते हैं।
कीर्ति - मुझे एक ही फर्क लगता है जो इन्हें एक दूसरे से अलग बना देता है वो है खुद से बनना और बनाना। कल्पना को हम खुद से बनाते हैं लेकिन सपना हमें तोहफे की तरह मिलता है जिसके बनने में मर्ज़ी शब्द नही होता।
राज - मैं सपना नहीं देखता या शायद मुझे याद नहीं रहते क्योंकि उनसे मेरा कोई लगाव नहीं है लेकिन मेरी कल्पना से मेरा लगाव है क्योंकि कल्पना मुझे आज़ादी देती है मन-मर्ज़ी सोचने की।
इस तरह कई तरह के सवालों से होकर हम सपने और कल्पना को लिखने लगे, कई नई दुनिया के चित्र हमारे सामने आने लगे। जिनको एक सूची में ढालकर हमने एक प्रक्रिया को ज़ोर दिया कि-- सपना और कल्पना में क्या फर्क है ?
saifu
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