Tuesday, August 24, 2010

खौफ

मैंने देखा है खौफ से डरते हुए लोगों को
दिमाग समझ नहीं पता है, उन अजीब से लम्हों को
खौफ से इंसान का चेहरा पसीने से भर जाता है
इंसान ठीक होता है लेकिन खौफ से डर जाता है.

खौफ हमें मौत के पास छोड़ आता है
मौत के मुंह से शायद ही किसी को बचना आता है
अकेले रहने से खौफ बढता जाता है
साथ रहने से खौफ घट जाता है

अब तो खौफनाक जगह बढती जा रही हैं
तभी इंसान की जिंदगी घटती जा रही है
एक बार खौफ से हम भी तो जकड़ गए
जब मम्मी ने  उठाया तो रात में अकड़ गए

मौत के खौफ से इंसान जीना छोड़ दे ?
मिर्च के खौफ से इंसान खाना छोड़ दे ??



Rajneet

Friday, August 20, 2010

जुम-जुम ज़ीना...

मैंने एक सपना देखा - जिस सपने में  मुझे एक ऐसा इंसान दिखाई दिया जो हमेशा लोगों को  देखकर जीता था.

मैं एक पार्क में  बैठकर अपने स्कूल का काम कर रही थी। तभी अचानक से एक आदमी उस पार्क में आकर बैठ गया, मैंने उस आदमी की तरफ देखा तो वो  धीरे धीरे उठकर मेरे पास आने लगा, फिर मैं उस जगह से उठकर दूसरी  जगह जाकर बैठ गई.  फिर वो  वहां  भी आने लगा और मैं ये देखकर घबरा गई। मैं ये सोचने लगी कि ये आदमी मेरे पास क्यों  आ रहा है ?

मैं वहां  से भी उठकर खड़ी हो गई और जब वो मेरे बहुत पास आ गया तो वो मुझे देखकर धीरे-धीरे हँसने लगा और अचानक से तेज़-तेज़ हँसने लगा और तभी में उसे देखकर रोने लगी। जब मैंने उससे पूछा कि तुम मुझे देखकर क्यू हँस रहे हो, तो इतना सुनते ही वो शान्त हो गया.

इस बार मैं और भी ज्यादा डरने लगी। मैं जितना उससे डर रही थी उतना ही वो मुझे घूरता जा रहा था। तब मैंने उससे पूछा कि तुम मुझे घूर क्यूँ  रहे हो ? तो वो तब भी चुप रहा, उसकी खामोशी से मेरे दिमाग में  तरह-तरह की  बातें  आने लगीं  कि कही वो मुझे मारेगा तो नहीं ?

वो और भी ज्यादा पास आने लगा, मैंने अपनी आँखें बन्द कर लीं  और मेरी चीख़ निकल गई, चीख निकलने के पीछे मेरा डर मुझे सता रहा था क्योंकि जब मैंने उसके पैर देखे तो वो ज़मीन पर नही था बल्कि वो ज़मीन से कुछ ऊपर था.

मैंने वहाँ  से भागना चाहा लेकिन उसने मुझे भागने नहीं  दिया, मैं रूक कर उसे देखने लगी उसने मुझसे ऊपर देखने को कहा, मैंने पहले अपने सवाल को जानना चाहा कि तुम मेरे पीछे क्यूँ पड़े हो? उसने कहा कि मुझे भूख लगी है।

मैंने उससे कहा कि ऐसा  मेरे पास क्या है जो तुम खाओगे?
उसने कहा कि "न ही मैं खाना खाता हू और न ही कुछ पीता हूं, मैं तो बस लोगों को देखकर जीता हूं"
जाओ अब तुम आज़ाद हो मेरा पेट भर गया और कहा कि इसलिए ही लोग मुझे ज़ुम-ज़ुम ज़ीना कहते हैं।
इतना कहकर वो वहाँ  से उड़ गया और तब से मैं उस पार्क में नही गई और न ही मुझे वो आदमी नज़र आया।



Nida

Friday, August 13, 2010

सपना और कल्पना में क्या फर्क है ?

लैब में आज कल कल्पना को लेकर सोचने का दौर चल रहा है।
लुबना, निदा ज़मीर, चरन सिंह, कीर्ति, राज और रीता  ये सब कल्पना पर सोचने के साथ-साथ कल्पना को सोचते वक्त जो सवाल उभरते हैं  उन पर भी ध्यान दे रहे हैं।
सबने अपने मन से कल्पना को सोचते हुये एक नई रचना को लिखा और सुनने-सुनाने में सुनाने के साथ अपने सवालों को सबके बीच रखा :
-कल्पना क्या है?
-कल्पना में हम क्या देख सकते हैं  और क्या नहीं  पाबन्दी को सोचते हुये?
-कल्पना में मैं कहा हूं ये कैसे दिखाया जाए?
-जीवन के दायरों  से बाहर निकल कर कल्पना क्या की जाए?

सबने कुछ-कुछ बोलना शुरू किया और सबके बोलने में  एक बात साफ थी कि कोई भी कल्पना को समझ नहीं  पा रहा था कि कल्पना क्या है ? और कल्पना को कैसे सोचा जाए ?
क्योंकि ये एक नया अनुभव उनके बीच आया है जिसे लिखना और सोच पाना मुश्किल लग रहा था लेकिन सबको ये भी मालूम था कि ये प्रेक्टिस   मुश्किल जरूर है लेकिन ना-मुमकिन नहीं.  सबकी कोशिशों में  ये बात साफ हो गई कि करने की अगर लगन हो तो कुछ भी किया जा सकता है।

निदा का कहना था कि अगर मैं अपना सपना लिखूं  तो क्या मैं उसे अपनी कल्पना से नहीं  जोड़ सकती ?

वो अकसर एक सपना देखती है - जिसमें  वो एक शख्स से रोज़ मिलती है, वो रोज़ उसके सपने मैं आता है और उसके साथ नई जगहों और मुलाकातों के चित्रों से उसे मखातिब कराता है , वो उसे नहीं  जानती ना ही पहचानती है बातचीत में भी वो अंजान ही रहता है , लेकिन वो निदा को बखूबी  जानता है और पहचानता भी है.  निदा ने कभी उसका चेहरा  नही देखा लेकिन वो उसके साथ बिताए हर पल को खुश होकर जीती है जैसे बारिश में नहाना, घूमते रहना, कहीं  साथ बैठकर खाना खाना, साथ-साथ बाते करते हुए दूर तक चलना और भी कई चित्रों में वो अपने सपनों को सजाती है उसके साथ.  और जब ये बातें वो अपने घर पर बताती है तो घर वाले डर जाते है और तरह-तरह के तावीजों  से निदा को उस शख्स से मिलने से रोकते हैं।

निदा के इस सपने को और सवाल को सोचते हुए लैब में  बातचीत हुई कि हम जब सपना देखते हैं  तो ऐसा  लगता है जैसे रात की तरफ से ये तोहफा हमें मिलता है जिसके रचनाकार हम नहीं  होते लेकिन उस रचना में हम शरीक होते हैं। उसकी बुनाई हम नहीं  करते लेकिन उसकी बुनाई हमारी ही ज़िन्दगी से लम्हों और जरूरतों को जोड़कर की जाती है। इसे मैं अपना कह सकता हूं, लेकिन अपना होते हुए भी ये खुद से दूर लगते हैं. कल्पना का अपनी सोच से और अपनी रचना से जुड़ाव होता है जिसे हम जीना चाहते या जोड़ना चाहते हैं , लगता है जैसे कल्पना चाहत का ही एक नाम हो ?

लेकिन सवाल आता है कि क्या सपना कल्पना से नहीं  जोड़ा जा सकता ?
लुबना- सपने में भी वही होता है जो कल्पना में होता है एक अदभुत दुनिया जो सच्चाई से परे है।
ज़मीर- सपने में भी मैं हवा में उड़ रहा था और कल्पना में भी मैं हवा में  उड़ रहा हूं। दोनों ही मेरी सोच से मुझे मिलते हैं।
कीर्ति  - मुझे एक ही फर्क लगता है जो इन्हें  एक दूसरे से अलग बना देता है वो है खुद से बनना और बनाना। कल्पना को हम खुद से बनाते हैं  लेकिन सपना हमें  तोहफे की तरह मिलता है जिसके बनने में मर्ज़ी शब्द नही होता।
राज - मैं सपना नहीं  देखता या शायद मुझे याद नहीं  रहते क्योंकि उनसे मेरा कोई लगाव नहीं  है लेकिन मेरी कल्पना से मेरा लगाव है क्योंकि कल्पना मुझे आज़ादी देती है मन-मर्ज़ी सोचने की।

इस तरह कई तरह के सवालों  से होकर  हम सपने और कल्पना को लिखने लगे, कई नई दुनिया के चित्र हमारे सामने आने लगे। जिनको एक सूची में ढालकर हमने एक प्रक्रिया को ज़ोर दिया कि-- सपना और कल्पना में क्या फर्क है ?


saifu

Monday, August 9, 2010

1st posting

ये ब्लॉग किसी जगह के उभार को आपके साथ बांटने  के लिए बनाया गया है, हम चाहते हैं  कि उन लोगों को जो लिखने की शुरुआत कर चुके हैं, जो अपनी उत्तेजनाओं  के साथ सबके बीच खड़े होने के लिए तैयार हैं और अपनी नयी-नयी रचनाओं  को आप सबके साथ बटना चाहते हैं, उन्हें सबसे रूबरु होने का मौका  मिले.

 हम चाहते हैं कि उन रचनाओं  को आप सभी देखें और समझें  कि कैसे कोई जगह अपनी बनावट के साथ खेलती है और उभार में आती है ?

ये एक प्रयास है अनुभूति सेवा समिति का जो पटियाली जैसे ग्रामीण  इलाके में इस तरह के काम को प्रोत्साहित कर रही है और कोशिश में है यहाँ की प्रतिभा को खोजने की, हम सबके सामने लाने की .


सैफू 
अनुभूति टीम